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विरोध से विद्रोह तक :


यदि आप किसी रास्ते से अकेले गुजर रहे हों और शौचालय की कोई व्यवस्था न हो और आपको पेशाब आ जाये तो आप क्या करोगे पेशाब या स्वच्छ भारत? यह बात हमें समझनी पड़ेगी, आज भारत में विरोध का एक सा ही स्वर सुनता हैं, पुरुष है तो उस पर लाठी, जूते, चप्पल का प्रयोग करो और यदि औरत है तो उसकी रंडी शब्द से ताजपोशी कर दो।
क्या हमारी बौद्धिकता केवल यहाँ तक ही सीमित रह गयी है? क्यूँ विरोध विचारिक आधार पर नहीं होता? क्यूँ हम सत्य के लिए विद्रोह नहीं करते?
विरोध और विद्रोह हमें शायद एक ही लगें पर दोनों के बीच का अंतर सूर्य-चंद्रमा का है, कहीं न कहीं एक दुसरे के दोनों पूरक हैं, विद्रोह सूर्य की तरह सम्पूर्ण और विरोध चंद्रमा की तरह विद्रोह के सूर्य के बिना अधूरा। दोनों में मूल अंतर केवल इतना ही है कि विरोध सत्य-असत्य को देख कर नहीं किया जाता, वो बस किया जाता है और कभी भी, बिना किसी आधार के भी, परन्तु विद्रोह का आधार हमेशा सत्य हुआ करता है। सत्य, जिसकी तुलना शिव से की गई, जो शिवतत्त्व की तरह अनूठा हो, जो शिव के नेत्र की तरह किसी पर दयाभाव से पड़ जायें तो वरदान, वहीं तीसरा नेत्र खुल जाये तो सब भस्म होने में क्षण नहीं। विद्रोह की नींब हमेशा बौधिकता पर रखी जाती है, परन्तु विरोध हमेशा क्रोध और स्वार्थ के कारण ही होता है, यही कारण है विद्रोह में आत्मतत्व की झलक होती है और विरोध अहं की उपज। इन लेखों के माध्यम से जो विद्रोह की आग सोई पड़ी है सदियों से, उसे जगाना है।

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