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मुक्ति बंधन

(श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद पर रचित)
श्री कृष्ण अर्जुन से:

रुकना झुकना तेरा काम नहीं,
तू पथिक तुझ से पथ, पथ से तेरा नाम नहीं,
हाथों में लिए अभिलाषादीप निरंतर प्रगति करता,
डरता न बुराई से बस दामन दमन से तू डरता,
चाहे स्वेद की धार बहे,
चाहे रक्त की बौछार बहे,
मगर पीछे न हट,
कर आत्म संकल्प न छोड़ेगा तू यह हठ,
जीवन की गगरी में चाहे जीवन हो दो बूंद क्या है ?
भीतर तेरे सागर बसता यह दो बूंद दो बूंद क्या है ?
तीन पग में माप ले तू सारी धरातल,
नीलकंठ भांति पी जा कालकूट से भरा हलाहल,
कर्तव्य के गांडीव से जो विपदा बाण चलें हैं,
हिमालय की शीतलता, अग्नि के तेज को सहते-सहते सदा वीर चले हैं,
नियति ने प्रशस्त किया है मार्ग पर अग्रसर होना है,
यही हल था धनंजय यही हल होना है।।

अर्जुन श्रीकृष्ण से:

आंख में अश्रु, मुख पर मौन लिए खड़ा है अर्जुन,
बंध मोह पाश में हार पड़ा है अर्जुन,

श्री कृष्ण अर्जुन से :

भूल गया तू पौत्र भीष्म का, जिसकी प्रतिज्ञा न जग में दूजी तुझमें गौत्र उस भीष्म का,
सामने शकुनि दुर्योधन या हो सूत पुत्र,
न हार मान रे पांडु पुत्र,
कर्म कर फल से तेरा काम नहीं,
रण से भागकर होगा तेरा सम्मान नहीं,
आत्मा अमरता कुंभ से सुसज्जित अमर रहेगी,
मृत्यु वस्त्र विसर्जन बस काया सहेगी,
कर्म योग का कर ध्यान,
याद रख सांख्य-ज्ञान,
साधक उठ जाग तू,
प्रण पथ पर अडिग होकर कर्म पथ पर भाग तू,
शाश्वत तो निराकार है,
जड़ ही केवल साकार है,
छोड़ चिंता कर आत्म चिंतन,
समाना है सब तेरा मुझ में ही चाहे तेरा तन मन धन या हो जीवन,
मुक्त हो,
विमुक्त हो,
अब तोड़ सारे बंधन,
अब छोड़ सारे बंधन,
कि प्राप्त हो तुझे भारत !!!
     "मुक्ति बंधन"

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