Disclaimer:
मेरा किसी भी प्रकार के नशे से तो वैसे कोई दूर-दूर तक का लेना देना नहीं है और ना ही मैं किसी प्रकार का नशा करता हूं, पर मुझे नशे करने वाले व्यक्तियों से भी किसी तरह की आपत्ति नहीं है जब तक वह मेरी अपनी निजता का हनन न करें ।
किस्सा:
अभी हाल ही में मुझे एक पहाड़ी क्षेत्र में विचरण करने का मौका मिला। जब मैं अपने मित्र के यहां पहुंचा तो वहां कुछ बुजुर्ग लोग बैठकर हुक्का पी रहे थे।
तभी एक बुजुर्ग आदमी ने मुझसे भी पूछा: बेटा हुक्का पियोगे ?
मैंने फट से जवाब दिया: मैं नहीं पीता जी।
तो फिर बुजुर्ग आदमी ने जवाब देते हुए कहा: पी लो बेटा बीड़ी से अच्छा होता है ।
मेरे मन में एक विचार शून्य अथवा अंधकार की भांति प्रवाहित हुआ और विचार आया कि मुझे एक लेखक होने नाते इस संदर्भ में कुछ लिखना चाहिए ताकि स्थिति थोड़ी स्पष्ट हो सके इसलिए यह लेख लिख रहा हूं ताकि एक सामंजस्य स्थापित कर पाऊं नशा करने वालों में और न करने वालों में ।
आज के सामाजिक परिदृश्य में भारत मुझे एक झूले के भांति अनुभूति देता है, जो झूल रहा है नशा करने वालों और न करने वालों के मध्य में। मानो जैसे कोई कंदुक को एक कोण से दूसरे कोण की ओर अग्रसर करता हो । उसी प्रकार मेरी मां भारती भी मुझे वर्तमान में बटी अनुभव होती है अपने दो पुत्रों के बीच एक जो नशे न करने का दंभ भरते हुए स्वयं को "आध्यात्मिक" की उपाधि देते हैं और दूसरे जो भौतिकता को सर्वेसर्वा मान लेते हैं जिन्हें बाद में समाज "नशेड़ी" की उपाधि देता है । पर फिर भी आख़िर यह कितना हास्यस्पद है कि नशेड़ियों की एक जमात ही नशेड़ियों को "नशेड़ी" की उपाधि देती है क्योंकि नशा तो दोनों में ही उतना ही गहरा है अध्यात्म में भी और किसी प्रकार के नशे में भी। यदि व्यक्ति भौतिकतावाद का मार्ग प्रशस्त करता है तो वह बाहरी नशों से ही स्वयं को तृप्त करेगा, परंतु यदि आध्यात्मिक है तो अध्यात्म के मार्ग का सारथी बन अध्यात्म का ही नशा करेगा।
यहां मैं मां मीरा की किसी नशेड़ी से तुलना नहीं कर रहा परंतु यदि किसी व्यक्ति ने दोनों को गौर से देखा हो एक नशेड़ी को भी और एक आध्यात्मिक व्यक्ति को भी, तो वह जानेगा कि क्रियाकलापो में दोनों बहुत समान हैं । एक प्रभु भक्ति में लीन होने के लिए उतना ही आतुर है जितना दूसरा तड़पता है नशा न मिलने पर । मां मीरा वैसे ही तड़पी थीं श्री कृष्ण के लिए जैसे है कोई नशेड़ी आजकल का चिट्टे और अफीम के लिए।
पर नशेड़ियों की तड़प का ध्यान रखते हुए पहले बात नशेड़ी के ऊपर ही की जाएगी ।
पूरी दुनिया में शराब नशे का सबसे सरलता से उपलब्ध होने वाला तरीका है और शराब का सेवन पूरी दुनिया में जोरो शोरो से किया जाता है और साथ ही साथ शराब एक ऐसी वस्तु है जिसे आप घर पर ही बना भी सकते हैं, जिसे हम देसी शराब के नाम से भी जानते हैं शायद इसीलिए इसका चलन भी बाकी नशों से ज्यादा है ।
जिस आदि काल में पूरा विश्व भारत से ज्ञान अर्जित करने के लिए निर्भर था उस समय से ही शराब का चलन भारत में है कभी मदिरा के नाम से और कभी सोमरस के नाम से और यदि मान ले कि लगभग लगभग 2000 साल हो गए फिर 2000 सालों से भारतीयों को शराब पीना क्यों नहीं आया ?
जब पूरे विश्व में शराब का सेवन होता है तो ऐसा अद्भुत दृश्य केवल भारत में ही देखने को क्यों मिलता है कि पहले घूंट में जोश, दूसरे में गाली, तीसरे में उल्टी और चौथे में नाली। यह संभवतः समूचे भारतवर्ष के मदिरापान करने वालों के हालात हैं । इस विषय पर विचार करना अति आवश्यक इसलिए भी है क्योंकि जब पूरा विश्व मदिरापान करता है तो भारत में ही लोग मदिरा के साथ साथ नाली के पानी का पान करते या किसी शौचालय के commode में मुंह ढकेलते हुए क्यों मिलते हैं ? संभवतः कारण यही है कि भारतीयों को कभी इस विषय पर बात करने का वैसे ही मौका नहीं मिला जैसे बाकी अन्य वर्तमान सामाजिक कुरीतियों के विषयों पर । हमें लगता है कि वस्तु को छोड़ देने से समस्या ठीक हो जाती हैं परंतु ऐसा कदापि नहीं है अपितु वस्तु को समझने से, उनका अनुसंधान करने से, समस्या का अर्थ निकालने से ही उत्पन्न समस्या का उपाय निकाला जा सकता है।
जब पूरे विश्व में शराब पीने की शैली का तरीका सिखाया जाता है तो भारत में क्यों नहीं है? जब भी बच्चे शराब पीते हुए एक उम्र तक पकड़े जाते हैं तो उनकी खूब सूताई की जाती है पर यह समस्या का हल नहीं हो सकता है अपितु हो सकता है कि आपकी मार उसे ढीठ बना दे, उससे बेहतर है कि आप उसे मदिरा के संदर्भ में हर एक छोटी बड़ी जानकारी सांझा करें और उसे उसके फायदे नुकसान सबसे अवगत करवाएं । अंततः उसे स्वयं फैसला लेने दें यदि वह छोड़ना चाहे तो उसकी मदद करें और फिर भी यदि वह सेवन करना चाहे तो उसे सेवन की उचित मात्रा का ज्ञान दे ताकि भविष्य में वह अपने, आपके और समाज के लिए समस्या का कारण न बने । फिर बात आती है एक और नशे की, भांग/गांजा या औषधीय पौधों का राजा। हाल ही में कनाडा में भांग का व्यवसाय सार्वजनिक कर दिया गया है क्योंकि उन्हें यह उम्मीद थी कि उससे उनके यहां भांग से होने वाले अपराधों में कमी आएगी । पर क्या कभी भारत जहां भांग एक औषधीय पौधे के रूप में भी सदियों से प्रयोग में लाया जा रहा है क्या यहां पर कभी इस तरह का विचार आ सकता है बिल्कुल नहीं उसका एक ही कारण है कि भारतीयों में इस बात का ज्ञान शून्य के बराबर है कि उपभोग और शोषण में क्या फर्क होता है। भारतीय उपभोग नहीं करता शोषण ही करता है जैसे कभी महिलाओं, कभी पुरुषों का और वैसे ही कभी शराब का तो कभी भांग का।
अब बात करते हैं अध्यात्म की जो अपने आप में भी एक नशा है, एक ऐसा नशा जिसके लिए भक्ति नाम की मदिरा पीनी पड़ती है और कुछ विरले लोग होते हैं मां मीरा की तरह, भक्त धन्ना जाट की तरह जो सच में पी पाते हैं। पर आज वर्तमान में इस मदिरा को भी समय के साथ प्रदूषित कर दिया गया है । आज अधिकतर समय अध्यात्म दंभ का विषय है अपितु कुछ नहीं । यदि आप में अध्यात्म का ज्ञान हैं और आप फिर भी दंभी हैं तो आपसे मदिरा का उचित मात्रा और ढंग से सेवन करने वाला ज्यादा व्यक्ति ज्यादा अच्छा है कम से कम वो आपकी तरह अपने मन, वचन और कर्म से किसी के अहित की कामना नहीं करेगा ।
मन की बात:
उपयोग, उपभोग और शोषण में एक बारीक सी रेखा का फर्क है यदि आप उसे समझते हैं तो फिर आप चाहे आध्यात्मिक है या नशेड़ी इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। फिर आप स्वयं की, अपनों की और समाज की समस्या अथवा सिरदर्द नहीं बनेंगे।
कार्तिक महोदय बहुत अच्छे विचार रखते हैं और बड़ी साफगोई से, सरलता से । बेहद पैनी दृष्टी से आकलन कर उसे कलमबद्ध भी किया।
ReplyDeleteबधाई।
Dhanyavaad Bandhoo
Deleteबहुत कमाल के तर्कों का इस्तमाल किया है बहुत सटीक रचना बहुत मुबारक
ReplyDeleteBhut acha likha h 👍👍beautiful😍😍
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