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शीर्षक: गाऔं हुण गाऔं नी रहे !!



कहाणियां दा घर बूढ़ी अम्मा कन्ने ढई गया,
ओ बदामी कज्जल, यादां दे फुहारे संग बही गया..

हुण भी क्या साएं-साएं बगदियाँ कुल्लाँ ?
हुण भी क्या मिटियाँ दी जगदियाँ चुल्लाँ ?
हुण भी क्या शामी जो, दाणयां दा लगदा भट्ठा ?
हुण भी क्या कटोरी सागे दी जो नौंण सजदा ?
हुण भी क्या मक्की घराटेयाँ च पिसदी होंगी ?
हुण भी क्या रस्सियाँ कुएं जो घिसदी होंगी ?
हुण भी क्या गोलगप्पेयाँ च पुदीने दा स्वाद होंगा ?
हुण भी क्या कंडेराँ दा घर आवाद होंगा ?
हुण भी क्या पहला निबाला गाय जो दिंदे होंगे ?
हुण भी क्या मुसाफ़िर टयाले दी छाँव थल्ले सोंदे होंगे ?
हुण भी क्या किंब खट्टा-मिट्ठा स्वाद दिंदे होंगे ?
हुण भी क्या जबरे खडू नालू बोडियाँ जाई नोंदे होंगे ?
हुण भी क्या बुजुर्ग हुक्का खिचदे ?
हुण भी क्या तूत गरने बिकदे ?
हुण भी क्या चौबरेआं ते ताशाँ दी महफ़िल लगदी ?
हुण भी क्या सरौं दे सिंगारें ने धरती फबदी ?
हुण भी क्या पीपल दियां ने सजदा ?
हुण भी क्या खुशियाँ च ढोल-नगाड़ा बजदा ?
हुण भी क्या दुलंणा दी पालकी सजदी ?
हुण भी क्या दुलंणा कलिरेयाँ च फबदी ?
हुण भी क्या कीचड़े ने होली रंगदे होंगे ?
हुण भी क्या बच्चे लोड़ी मंगदे होंगे ?
हुण भी क्या सुराहियाँ कन्ने बुझदी होंगी प्यास ?
हुण भी क्या तिज्जो मेरे औंणे दी होंदी होंगी आस ?

कुति गुम सरसों दी महक होई,
कुति चुप चिड़ियाँ दी चहक होई,
किती शाम ढली, किती ताजगी हवा होई,
किती सवेर ख़तम होई, किती रिश्तेआँ दी स्वाह होई,
हुण ना ठण्डु दी धूप रही, न पीपले च औ छांव रहे ...
कहंदा “कार्तिक”  सुणिलेया तुस्सां भी “ गाऔं हुण गाऔं नी रहे !!”


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